गुलजार.. गर याद रहे! Part III

“..दो नैना और एक कहानी
थोड़ा-सा बादल, थोड़ा-सा पानी
और एक कहानी

छोटी सी दो, झीलों में वो, बहती रहती है
कोई सुने या ना सुने, कहती रहती है
कुछ लिख के और कुछ ज़ुबानी
थोड़ा सा बादल…

थोड़ी सी है जानी हुई, थोड़ी सी नयी
जहाँ रुके आँसू वहीं, पूरी हो गयी
है तो नयी फिर भी है पुरानी
थोड़ा सा बादल…

इक ख़त्म हो तो दूसरी, रात आ जाती है
होठों पे फिर भूली हुई, बात आ जाती है
दो नैनों की है ये कहानी
थोड़ा सा बादल…”

..”दो नैना एक कहानी” गीत फिल्म ‘मासूम’ १९८३ से; जिसे तबकी नवोदित पार्श्व गायिका आरती मुखर्जी ने गाया था ..तो गीत रचना गुलजार साहब की थी। ..तो हम बच्चों का इस फिल्म को देख पाना तो जैसे अपने बचपने से ही हम सबकी पहली मुलाकात थी। ..तब मैं महज छ: साल का था; और याद है साईकिल की अगली सीट पे बैठ पिताजी के साथ सिनेमा हॉल जा पहुंचा था ..और पीछे पाईडल रिक्सा पे आते भाई-बहन माँ के साथ; और फिर फिल्म स्टार्ट होते ही “लकड़ी की काठी.. काठी पे घोड़ा” वाला गाना।

“..लकड़ी की काठी काठी पे घोड़ा
घोडे की दुम पे जो मारा हथौड़ा
दौड़ा दौड़ा दौड़ा घोड़ा दुम उठा के दौड़ा

लकड़ी की काठी काठी पे घोड़ा
घोड़े की दुम पे जो मारा हथौड़ा
दौड़ा दौड़ा दौड़ा घोड़ा दुम उठा के दौड़ा
लकड़ी की काठी काठी पे घोड़ा
घोड़े की दुम पे जो मारा हथौड़ा
दौड़ा दौड़ा दौड़ा घोड़ा दुम उठा के दौड़ा

घोड़ा पोहचा चौक में चौक में था नाई
घोड़े जी की नाई ने हजामत जो बनाई
टग बग टग बग
चग बग चग बग
घोड़ा पोहचा चौक में चौक में था नाई
घोड़े जी की नाई ने हजामत जो बनाई
दौड़ा दौड़ा दौड़ा घोड़ा दुम उठा के दौड़ा
लकड़ी की काठी काठी पे घोड़ा
घोड़े की दुम पे जो मारा हथौड़ा
दौड़ा दौड़ा दौड़ा घोड़ा दुम उठा के दौड़ा..

ला ला ला ला ला ला ला
ला ला ला ला ला ला ला
घोड़ा था घमंडी पोहचा सब्जी मंडी
सब्जी मंडी बरफ पड़ी थी बरफ में लग गई ठंडी
टग बग टग बग
टग बग टग बग
घोड़ा था घमंडी पोहचा सब्जी मंडी
सब्जी मंडी बरफ पड़ी थी बरफ में लग गई ठंडी
दौड़ा दौड़ा दौड़ा घोड़ा दुम उठा के दौड़ा
लकड़ी की काठी काठी पे घोड़ा
घोड़े की दुम पे जो मारा हथौड़ा
दौड़ा दौड़ा दौड़ा घोड़ा दुम उठा के दौड़ा..

घोड़ा अपना तगड़ा है देखो कितनी चर्बी है
चलता है महरौली में पर घोड़ा अपना अरबी है
घोड़ा अपना तगड़ा है देखो कितनी चर्बी है
चलता है महरौली में पर घोड़ा अपना अरबी है
बाँह छुड़ा के दौड़ा दौड़ा दुम उठा के दौड़ा
लकड़ी की काठी काठी पे घोड़ा
घोड़े की दुम पे जो मारा हथौड़ा
दौड़ा दौड़ा दौड़ा घोड़ा दुम उठा के दौड़ा..”

बॉलीवुड-हॉलीवुड फिल्मों के नामी फिल्म-मेकरों में बतौर निर्देशक शेखर कपूर की पहली फिल्म ‘मासूम’ ही थी; और इस फिल्म का ये गाना “लकड़ी की काठी.. काठी पे घोड़ा” ..जो केजी स्कूली दिनों वाली तमाम हिन्दी इंग्लिश पोएट्री के साथ हम सब बच्चों की जुबान चढा था; एक एक शब्द व सटीक पंक्तियों के साथ। ..फिर तो तब हम इस गीत को लिखने वाले गीतकार गुलजार साहब के नाम से भी परे थे; मगर बच्चों की इस फिल्म को देखने के बाद याद रहे तो सिर्फ ‘मासूम’ सा दिखने वाला मास्टर जुगल हंसराज, अभिनेता नसीरुद्दीन शाह और अभिनेत्री शबाना आजमी।

..नवोदित पार्श्व गायक अनूप घोषाल व लता मंगेशकर की सुमधुर एकल स्वरों में आवाज में फिल्म ‘मासूम’ का “तुझसे नाराज नहीं जिन्दगी” गीत; जिसे आज भी खूब सुना जाता है। ..या फिर गुलजार साहब के लिखे कुछ ऐसे गीत जो जीवन के हरेक पहलुओं को सहेजे चलते हैं। ..चाहे सुख हो या दुख ..’दर्द-ऐ-दिल’ या फिर ‘शाम-ऐ-महफिल’; मनचाहे शब्दों का ‘ब्रश-स्ट्रोक’ ..जो पनपते-तपते जीवन के हरेक अनुभूतियों को सफेद पन्नों पे उकेर ही लेता है।

“..हुजूर इस कदर भी ना इतराके चलिये
खुले आम आँचल ना लहरा के चलिये..

कोई मनचला अगर पकड़ लेगा आँचल
ज़रा सोचिये आप क्या कीजियेगा
लगा दे अगर बढ़ के जुल्फों में कलियाँ
तो क्या अपनी जुल्फें झटक दिजीयेगा
हुजूर इस कदर भी ना..

बड़ी दिलनशी है हँसी की ये लडीयाँ
ये मोती मगर यूँ ना बिखराया कीजे
उड़ा के ना ले जाए झोंका हवा का
लचकता बदन यूँ ना लहराया कीजे
हुजूर इस कदर भी ना..

बहोत खूबसूरत है हर बात लेकिन
अगर दिल भी होता, तो क्या बात होती
लिखी जाती फिर दास्ताँ-ए-मोहब्बत
एक अफसाने जैसी मुलाक़ात होता
हुजूर इस कदर भी ना..”

..उर्दू शब्द ‘अल्फाजों’ से भरा गुलजार साहब का लिखा ये गीत “हूजूर इस कदर भी ना इतराके चलिए..”; फिल्म ‘मासूम’ १९८३ से। ..फिर तो शब्दों से भरे झील समंदर में नए जुबानों की कश्तकारी को इजाद किऐ; गुलजार साब ..मानों गुजरे वक्त के मशहूर शायर ‘मिर्जा गालिब’ के खेमें में जा पहुंचते हैं ..तो आम बोलचाल की तबीयती मिजाज को पसंद करती आज के हमारे नए-नए से संस्करण ..जो जज्बाती तौर पर कितनी ही ‘जमीनों व अमीनों’ को एक किऐ रहती।

“..रात को अक्सर होता है,परवाने आकर,

टेबल लैम्प के गिर्द इकट्ठे हो जाते हैं..

सुनते हैं,सर धुनते हैं

सुन के सब अश’आर गज़ल के..

जब भी मैं दीवान-ए-ग़ालिब

खोल के पढ़ने बैठता हूँ..

सुबह फिर दीवान के रौशन सफ़हों से

परवानों की राख उठानी पड़ती है।” – गुलजार